मिथिलांचल में समय के साथ-साथ बदल रहा खानपान का ट्रेंड, मेन्यू से गायब हुआ दही-चूड़ा

मिथिलांचल में समय के साथ-साथ बदल रहा खानपान का ट्रेंड, मेन्यू से गायब हुआ दही-चूड़ा

Patna: मिथिलांचल अपनी खानपान संस्कृति के लिए विश्व विख्यात रहा है. यहां का खाना लोगों को आकर्षित करता है. लेकिन, बदलते दौर में यहां की संस्कृति भी बदलाव से अछूती नहीं रही. बीसवीं सदी के अंतिम दशक के बाद यह बदलाव काफी तेजी से हुआ. यही कारण है कि आज मिथिलांचल का मेन्यू काफी हद तक बदल चुका है. बदलाव का क्रम अब भी जारी है. एक समय था जब मिथिलांचल में दही-चूड़ा एक प्रमुख भोजन माना जाता था. जिस तरह आज कदम-कदम पर फास्ट फूट के काउंटर मिलते हैं, वैसे ही एक समय था जब मिथिलांचल के हर चौक-चौराहों पर दही-चूड़ा की दुकानें होती थीं. लेकिन, आज बाजार की तस्वीर बदल चुकी है. अब दही-चूड़ा की दुकानें बीते समय की बातें होकर रह गई हैं. मिथिलांचल के मेन्यू से यह पारंपरिक भोजन लगभग गायब हो चुका है.

आर्थिक गतिविधियों से जुड़ी परंपरा

मिथिलांचल का पूरा इलाका मूल रूप से कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है. यहां के लोगों की प्रमुख आजीविका कृषि व पशुपालन है. धान की खेती काफी मात्रा में होती रही है. इस वजह से लोगों के घरों में चूड़ा आसानी से उपलब्ध रहता था. कृषि के साथ ही पशुपालन की भी प्रधानता रही. इस वजह से दुधारू पशुओं की मौजूदगी के कारण दही भी लोगों के घरों में उपलब्ध रहता था. यही वजह है कि प्राचीन समय से दही-चूड़ा यहां का प्रमुख भोजन बना रहा.

तेजी से बदल रहीं परंपराएं

अस्सी के दशक के बाद परिवर्तन काफी तेज गति से हुआ. लगातार बाढ़ व सुखाड़ का दंश झेलने वाले मिथिलांचल क्षेत्र में धीरे-धीरे लोगों की आजीविका बदलने लगी. कृषि का पिछड़ापन व पशुपालन के प्रति लोगों का मोहभंग परंपराओं को बदलने में अहम रहा. हालात यह रहे कि कृषि छोड़ लोगों का मजदूरी के लिए पलायन शुरू हुआ. जहां वे गए वहां के भोजना को अपना लिया और अपना दही चूड़ा भूल गए.

मिथिलांचल में दही-चूड़ा का रहा है क्रेज

दही-चूड़ा की आसानी से उपलब्धता के कारण मिथिलांचल में इस भोजन का क्रेज रहा है. घर में ही नहीं, बल्कि सामूहिक आयोजनों में भी दही-चूड़ा के भोजन की परंपरा रही है. मिथिलांचल के ग्रामीण इलाकों में श्राद्धकर्म के दौरान दही-चूड़ा के भोज की परंपरा आज भी कई क्षेत्रों में कायम है. हालांकि, समय के साथ इसमें काफी कमी आई है. अब दही-चूड़ा की जगह कचौड़ी-सब्जी ने ले ली है.

राजनीति में भी दही-चूड़ा की रही मौजूदगी

बिहार की राजनीति में भी दही-चूड़ा की मौजूदगी रही है. पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आवास पर मकर संक्रांति पर दही-चूड़ा के भोज की चर्चा सालों से सुर्खियों में रही है. इसके बाद तो कई नेताओं के घर सामूहिक रूप से दही-चूड़ा के भोज का आयोजन किया जाने लगा. बिहार में पिछले करीब चार दशक के राजनीतिक परिदृश्य में दही-चूड़ा की चर्चा होती रही है.

आसानी से उपलब्धता रहा प्रचलन का आधार

समाजशास्त्री प्रो. गोपी रमण प्रसाद सिंह ने बताया कि मिथिलांचल में दही और चूड़ा की आसानी से उपलब्धता के कारण यह इस क्षेत्र का यह प्रमुख भोजन रहा. लेकिन, समय के साथ-साथ सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों के कारण इसकी उपलब्धता प्रभावित हुई. धीरे-धीरे मिथिलांचल की खाद्य परंपरा से दही-चूड़ा गायब होता चला गया. आज मिथिलांचल में खेती व पशुपालन करने वालों की संख्या काफी कम हो चुकी है. औद्योगिकीकरण के दौर में निजी व सरकारी क्षेत्रों में नौकरी का प्रचलन बढ़ा. लोग कृषि व पशुपालन से विमुख होते गए. बाजारवाद से मिथिलांचल का क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा. होटल-रेस्टोरेंट की फैलती संस्कृति में दही-चूड़ा की दुकानें धीरे-धीरे बंद होती चली गईं.

नुकसान कुछ नहीं, फायदे अनेक

आयुर्वेदाचार्य आलोक मिश्रा ने बताया कि दही-चूड़ा से नुकसान कुछ नहीं है. बल्कि, इसके फायदे अनेक हैं. चूड़ा धान से बनता है जो शुद्ध होता है. दही गाय या भैंस के दूध से तैयार होता है जो शरीर के लिए पौष्टिक माना जाता है. ऐसे में दही-चूड़ा का नियमित सेवन हमारे शरीर के लिए काफी फायदेमंद है. इसका एक फायदा यह भी है कि दही-चूड़ा का सेवन करने के बाद काफी देर तक भूख नहीं लगती. यही वजह है कि पहले के समय में कृषक परिवारों में यह प्रमुख भोजन रहा है. किसान सुबह घर से दही-चूड़ा खाकर खेतों में निकलते थे तो पूरे दिन उन्हें भोजन की चिंता नहीं होती थी.

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