चुनाव में धरे रह गए पप्‍पू यादव, उपेंद्र कुशवाहा और चिराग पासवन के अरमां

चुनाव में धरे रह गए पप्‍पू यादव, उपेंद्र कुशवाहा और चिराग पासवन के अरमां

Patna:बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम ने स्पष्ट कर दिया है कि लोक लुभावन नीतियों से जनता को लुभाने के दिन अब लद गए हैं। आम जनता न तो क्षेत्रीय दलों के अवसरवादी एवं बेमेल गठजोड़ का तरजीह दे रही है और न ही उनकी लोक लुभावन नीतियों को तवज्जो दे रही है। यही वजह है कि इस बार चुनाव में गेमचेंजर या किंगमेकर बनने का ख्वाब पाले छोटे-छोटे दलों के बेमेल गठजोड़ करने वाले दिग्गजों को जनता ने उनकी राजनीतिक हैसियत बता दी। ऐसे दलों को जनता ने बिहार की राजनीति से भी बाहर का रास्ता दिखाने का काम किया।

कुशवाहा का ‘कमाई, दवाई, पढ़ाई और कार्रवाई’ का नारा फेल

जातीय समीकरण के फार्मूले पर बेमेल चुनावी गठजोड़ करने वाले क्षेत्रीय दलों के दिग्गज खुद को ‘गेमचेंजर’ के तौर पर पेश कर रहे थे, लेकिन परिणाम सामने आते ही उनका कोई असर नहीं दिखा। इनके घोषणा पत्रों में बड़े-बड़े वादे-इरादे जताए गए थे। लेकिन, लोकलुभावन नीतियों को जनता ने किस कदर नकारा है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण छोटे दलों के गठबंधनों का सीधे मुकाबले में नहीं टिक पाना है। उपेंद्र कुशवाहा ने प्रचार अभियान में ‘कमाई, दवाई, पढ़ाई और कार्रवाई’ का नारा जमकर उछाला था। बसपा प्रमुख मायावती ने अपने शासन में यूपी में किए विकास कार्यों का हवाला देकर वोटरों को लुभाने की कोशिशकी थी। सीमांचल व कोसी में असदुद्दीन ओवैसी ने रोजी-रोजगार और एनआरसी का मुद्दा उछाला था। लेकिन वोटरों ने लोकलभावन घोषणाओं को सिरे से नकार दिया और उनकी राजनीति हद भी बता दी।

चिराग का ‘बिहार फर्स्‍ट, बिहारी फर्स्‍ट’ नहीं लुभा सका

लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान ने ‘बिहार फर्स्‍ट, बिहारी फर्स्‍ट विजन डाक्यूमेंट’ से वोटरों को लुभाने की कोशिश की थी। तब चिराग ने दावा किया था कि इस बार बिहार की सत्ता की ताला-चाबी उसके ‘बंगले’ (लोजपा का चुनाव चिन्ह) में रहेगी। लोजपा समर्थक चिराग को ‘किंग मेकर’ बता रहे थे, लेकिन चुनावी नतीजे से साफ हो गया कि चिराग के दावों में कितना ‘वजन’ था? चुनाव विश्लेषक कह रहे हैं कि इस चुनाव में लोजपा की बुरी गत हुई है। इससे चिराग को सबक मिलेगा। साथ ही चिराग की राजनीतिक चुनौतियां भी बढ़ेंगी।

तीसरा मोर्चा बुरी तरह ध्‍वस्‍त

राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने ‘गेमचेंजर’ के दावे के साथ ग्रैंड यूनाइटेड सेक्यूलर फ्रंट बनाया था। इसमें मायावती की बसपा, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम तथा देवेंद्र प्रसाद यादव के समाजवादी जनता दल के अलावा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी एवं जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) शामिल थी। लेकिन चुनावी नतीजे से साफ हो गया कि यह फ्रंट मुकाबले में कहीं टिकने लायक नहीं था। कुछ ऐसा ही बुरा हाल जन अधिकार पार्टी (जाप) के प्रमुख पप्पू यादव के गठबंधन प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक एलांयस हुआ। चुनाव विश्लेषक कह रहे हैं कि बिहार चुनाव में पहली बार बेमेल गठबंधनों को जनता ने ठिकाने लगाने का काम किया। मगध, शाहाबाद, अंगिका, मिथिलांचल, कोसी और सीमांचल क्षेत्र में उपेंद्र कुशवाहा, असदुद्दीन ओवैसी और पप्पू यादव का कोई प्रभाव नहीं दिखा। ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम से सीमांचल और कोसी इलाके में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद थी। इसी तरह माना जा रहा था कि अपने प्रभाव वाले कोसी और सीमांचल में पप्पू यादव का असर दिखेगा, लेकिन वे खुद मधेपुरा से चुनाव हार गए।

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